भाजपा का नया दांव : सवर्ण आरक्षण
आम चुनाव से ठीक पहले सत्ताधारी भाजपा ने सवर्ण आरक्षण का दांव खेलकर यह सिद्ध कर दिया है कि चुनावी समर में जीत हासिल करने के लिए उसके तरकश में अचूक हथियारों की कमी नहीं है। सवर्ण आरक्षण का कार्ड ऐसे समय खेला गया है जब अधिकतर राजनीतिक पार्टियां दबी जुबान से भाजपा को सवर्णों का विरोधी बताती थीं। अपने विरोधियों की इस चाल का अदांजा पार्टी को गत दिनों हुए मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावी नतीजों से भी हुआ। शायद यही बड़ी वजह थी कि भाजपा को तीन राज्यों में हार का मुंह देखना पड़ा। पार्टी ने इन नतीजों के डैमेज कंट्रोल के लिए सवर्ण आरक्षण का हथियार चला है। पार्टी ने संसद के दोनों सदनों में सवर्ण आरक्षण बिल को आनन-फानन पास कराकर अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय भी दिया है। उसको पता था कि सवर्ण आरक्षण का मुद्दा ऐसा है जिसका कोई पार्टी विरोध नहीं करेगी। हुआ भी यही कि हल्के विरोध के बावजूद सभी पार्टियों ने इस बिल पर अपनी मोहर लगा दी। संवैधानिक रूप से 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण की लिमिट को पार नहीं किया जा सकता। मौजूदा बिल इस लिमिट का सरासर उल्लंघन करता है। बावजूद इसके आरक्षण का दांव एक बार फिर सरकार ने निर्भय होकर खोला।

वैसे 2014 के आम चुनाव में भाजपा ने जातिगत राजनीति से ऊपर उठकर चुनाव लड़ा था और इसके परिणामस्वरूप उसको अपार बहुमत भी मिला था। लेकिन राजनीति का परिदृश्य अब पूरी तरह बदल चुका है। भाजपा को अब लगने लगा है कि आने वाले चुनाव में इस तरह की राजनीति से काम नहीं चलेगा। इसकी वजह थी कि सभी राजनीतिक पाटियाँ जाति की राजनीति बढ़-चढ़कर कर रही हैं और उसके पिछड़ने का भी यही बड़ा कारण है। सवर्ण आरक्षण बिल में सरकार ने यह प्रावधान भी किया है कि दूसरी जातियों को मिलने वाले आरक्षण से सवर्ण आरक्षण का कोई लेना देना नहीं है। यह प्रावधान तभी किया गया ताकि विरोधियों को आलोचना का कोई मौका नहीं मिले। यह फुलप्रूफ बिल के माध्यम से सरकार ने इस तथ्य को उजागर कर दिया है कि सवर्ण जातियों में जो गरीब हैं उनके हितों के लिए भी सरकार चिंतित है। सरकारी लाभ का मौका उन सभी को दिया जायेगा जो वास्तव में इसके हकदार हैं।

 


 

उल्लेखनीय है कि देश की लगभग 180 लोकसभा सीटों पर सवर्ण मतदाता निर्णायक असर डालते हैं। किसी भी पार्टी की जीत में उनकी अहम भूमिका होती है। देश की आजादी के बाद जितने भी चुनाव हुए, उन चुनावों में सवर्णों की निर्णायक भूमिका तो रही लेकिन वोटों का प्रतिशत कम रहने से राजनीतिक पार्टियों ने दूसरी जातियों को ज्यादा अहमियत दी। दूसरी जातियों के शतप्रतिशत वोटों से पार्टियों का झुकाव उनकी तरफ हुआ और यही झुकाव आरक्षण का बड़ा कारण बना। पिछले कई चुनावों से निर्वाचन आयोग ने वोटों का प्रतिशत बढ़ाने के लिए सकारात्मक मुहिम चलाई। इसका परिणाम यह हुआ कि जिन सवर्ण मतदाताओं का रुझान मतदान में नहीं था, उनका रुझान उस तरफ बढ़ा और वोटों के प्रतिशत में बढ़ोत्तरी दर्ज हुई। अब स्थिति यह है कि चुनावों में लगभग 70 प्रतिशत से अधिक वोटिंग होती है। वैसे भी वोटिंग जितना अधिक बढ़ेगी जाहिर है लोगों की भागीदारी बढ़ेगी और लोकतंत्र उतना ही अधिक मजबूत होगा।

इसके इतर यह भी तथ्यपरक है कि वर्तमान में सरकारी नौकरियों की भारी कमी है। राजनीतिक पार्टियाँ चुनावों से पहले सरकारी नौकरियों की कमी पूरी करने की बढ़-चढ़कर वकालत तो करती हैं लेकिन चुनाव जीतने के बाद इस समस्या में कोई खास सुधार नहीं हो पाता। स्थिति आज भी जस की तस ही है। ऐसे में आरक्षण की बात कितनी सार्थक होगी, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। आने वाले आम चुनाव में भी बेरोजगारी का मुद्दा गरमाने के पूरे आसार हैं। आखिर यह बेरोजगारी कब दूर होगी या महज आरक्षण ही इस कमी को पूरा कर देगा, यह बड़ा मुद्दा है।