कब तक भुखमरी का शिकार रहेगा भारत?

 


21वीं सदी के भारत को जहां दुनिया तेजी से  बढ़ती अर्थव्यवस्था के तौर पर देख रही है वहीं इसकी एक चौथाई आबादी आज भी भुखमरी का शिकार हो रही है। इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि एक ओर भारत विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली देशों की कतार में खड़ा होने के लिए संघर्ष कर रहा है दूसरी ओर एक बड़ी आबादी का यह कड़वा सच गंभीर चिंता पैदा करता है। आबादी के लिहाज से दूसरा सबसे बड़ा देश भारत हालांकि खाद्यान्न उत्पादन में रेकार्ड पैदावार कर रहा है लेकिन खाद्यान्न वितरण और भंडारण क्षमता के अभाव में काफी पिछड़ रहा है। यही बड़ी वजह है कि बावजूद इसके 20 प्रतिशत खाद्यान्न प्रतिवर्ष बेकार चला जाता है। इसी बड़ी विकृति को हम कई दशकों से दूर नहीं कर पाए हैं। आए वर्ष होने वाले चुनावों में विकास का नारा तो बड़े जोरशोर से दिया जाता है लेकिन देश की इस भयावह तस्वीर पर किसी का ध्यान नहीं जाता। संविधान में हर किसी को जीवन की सुरक्षा का अधिकार दिया गया है। इस अधिकार को देने में सरकारें कितनी मुस्तैदी से काम कर रही हैं, यह देखना समाज की भी बड़ी जिम्मेदारी है। प्रतिस्पर्धा की अध्ांी दौड़ में हम मानवीय संवेदनाओं से दूर होते जा रहे हैं और बड़ी जनसंख्या को उसके मूलभूत अधिकार से वंचित कर रहे हैं। आजादी के सात दशक बीत जाने पर भी देश भुखमरी का दंश झेल रहा है और सरकार इसके लिए अभी तक कोई कारगर योजना नहीं बना पाई है।


वर्तमान में विकास के लिए सरकार समय-समय पर अनेक योजनायें पेश करती है लेकिन भुखमरी और कुपोषण से निजात दिलाने के लिए बेहतर कदम नहीं उठाती। बड़े दुर्भाग्य का विषय है कि आज भी 21 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं और सरकारें स्कूलों में मिड डे मील की स्कीम चलाकर अपने काम की इतिश्री मान रही हैं। मिड डे मील की क्वालिटी की खबरें भी आये दिन मीडिया की सुर्खियां बनती हैं। लेकिन कुपोषण से निजात दिलाने में गंभीरता नहीं दिखाई जाती। आंकड़ों के मुताबिक भारत से कुपोषण की स्थिति कई पड़ोसी देशों से भी खराब है। ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि जब हम बच्चों की एक बड़ी जनसंख्या को बेहतर पोषण नहीं दे पा रहे हैं तो विकास के क्या मायने। बच्चे देश का भविष्य होते हैं, यह वाक्य तो राजनेता अपने भाषणों में बढ़-चढ़ कर बोलते हैं पर देश के नौनिहालों की असल जिंदगी क्या है, इसका भान शायद उन्हें नहीं है। आज शिक्षा के प्रचार-प्रसार में अनेक सरकारी और गैर सरकारी एजेंसियां काम कर रही हैं लेकिन क्या उचित पोषण के बिना शिक्षा संभव है? जब बच्चों का स्वास्थ्य ही ठीक नहीं रहेगा तब तक शिक्षा के क्या मायने? इसलिए सरकार की प्राथमिकता जब तक बच्चों के स्वास्थ्य पर नहीं होगी तब उनके लिए बनी सारी योजनाओं का कोई मतलब नहीं है। देश के तमाम पिछड़े और आदिवासी इलाके ऐसे हैं जहां बच्चों को भरपेट खाना भी नसीब नहीं हो रहा है।


देश में विकास के नाम पर कृषि भूमि को कम किया जा रहा है और तेजी से बढ़ती आबादी शहरों की ओर पलायन कर रही है। इससे शहरों का दायरा बढ़ रहा है। इस आबादी को समंजित करने में सरकारों के भी पसीने छूट रहे हैं। संसाधन कम होते जा रहे हैं और आबादी बढ़ती जा रही है। इस आबादी पर यदि अविलंब रोक नहीं लगाई गयी तो वह दिन दूर नहीं जब शहरों से ही उलटा पलायन शुरू हो जाए। देश के संसाधनों पर सबका बराबर का अधिकार है लेकिन कुव्यवस्था के चले एक बड़ी आबादी को पर्याप्त खाद्यान्न भी उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। हालांकि कृषि के क्षेत्र में अनेक प्रयोग हो रहे हैं और उत्पादन भी बढ़ रहा है पर अभी तक खाद्यान्न को सुरक्षित नहीं किया जा सका है। एक ओर देश से निर्यात किया जा रहा है और दूसरी ओर एक बड़ी आबादी भूख से जूझ रही है। यह बड़ी भयावह स्थिति है। आज ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत का 102वां स्थान है जो देश की असल तस्वीर को उजागर करता है। 


हमारे लिए यह बड़े शर्म की बात है कि एक तरफ तो सुरक्षा के लिहाज से बड़े-बड़े हथियारों को खरीदा जा रहा है तथा चंद्रमा पर जीवन खोजने के लिए अरबों खर्च किये जा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ बड़ी आबादी को पर्याप्त भोजन तक नसीब नहीं हो पा रहा है। देश में जब तक भुखमरी और कुपोषण है तब तक विकास का कोई भी दावा थोथा ही साबित होगा। इसलिए सरकारों को अब पूरी इच्छाशक्ति से देश पर लगे इस कलंक को मिटाना होगा तभी हम इस विकासशील समाज का हिस्सा बन पायेंगे।