कसौटी पर अंतरिम बजट


केंद्र में सत्तारूढ़ मोदी सरकार के विकास सम्बन्धी अपने दावे-प्रतिदावे हैं जबकि उसके चक्कर में उलझी हुई अवाम की अपनी-अपनी आर्थिक त्रासदियां। देखा जाए तो सबकी अलग-अलग और नित्य नई उठती परेशानियां ऐसा रूप अख्तियार कर चुकी हैं कि सबका साथ-सबका विकास का नारा भी अब बेमानी प्रतीत होने लगा है। यह सही है कि जनता नोटबन्दी और कारोबारी जीएसटी की मार से अब उबर रहे हैं लेकिन भ्रष्टाचार उन्मूलन और कालेधन की खोज में सरकार ने जैसे जैसे दुरूह उपाय किये, उससे उनकी तमाम जन कल्याणकारी कार्यक्रमों से मिली सहूलियत हवा हवाई हो गई।



कहने का तात्पर्य यह कि जरूरतमंदों को कम मिली और व्यवस्थागत गणेश परिक्रमा करने वाले या फिर उनके चहेते लोग इस दौर में भी अधिक लाभान्वित हुए। यही वजह है कि लोकलुभावन बजटीय दावों और असमानता व पिछड़ेपन की तल्ख सच्चाइयों की उपेक्षा करना न तो सरकार के लिए सम्भव है और न ही जनता  के लिए निरापद। अंतरिम बजट इसकी बानगी है।



कहना न होगा कि जिस देश में रोटी, कपड़ा और मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य और सम्मान से जुड़ी सियासत से इतर जातीय आरक्षण, सांप्रदायिक तुष्टिकरण और व्यवस्थागत ‘बंदरबांट’ वाली तिलस्मी सियासत को ही तरजीह दिए जाने की होड़ मची हो, अनपढ़ अथवा कम पढ़े लिखे और आपराधिक प्रवृत्ति वाले लोगों से संसद, विधानमंडल और त्रिस्तरीय पंचायती निकाय अटे पड़े हों, वहां बजट के मौलिक पहलुओं पर आखिर जनहित में प्रकाश डालेगा कौन, यह सवाल आज हर किसी को कुरेद रहा है, क्योंकि सत्तापक्ष और विपक्ष के रंग रूप एक हैं और उनकी चाल, चरित्र और चेहरे में कोई खास फर्क नहीं?



स्वाभाविक है कि बजट सब्सिडी से जुड़े ब्लाइंड गेम को हमारी अवाम जिस दिन समझ लेगी, इस पूरी बजट व्यवस्था से ही उसका विश्वास उठ जाएगा। बावजूद इसके उसका मीन मेख निकालना अधिकतर राजनेताओं के लिए भी सहसा सम्भव नहीं होगा और इससे बिलकुल मुंह फेरना तो किसी भी बुद्धिजीवी के बस की बात ही अब नहीं रही।



इसलिए सुलगता सवाल फिर वही कि नक्कारखाने में तूती की आवाज को सुनेगा कौन क्योंकि जनहित से जुड़े जिन अहम मसलों जहां बहस होनी चाहिए, वहां तो अब शोरगुल का शर्मनाक आलम और सत्तागत दांव-प्रतिदांव का खेल ही सत्र दर सत्र परवान चढ़ता जा रहा है और इसे नियंत्रित करने के प्रयास अबतक विफल साबित हुए हैं।
ऐसा इसलिए कि जनहित की भावना अब हर जगह दम तोड़ रही है और व्यवस्था हित को संरक्षित रखने के लिए वर्ग हित की वकालत को कतिपय लोग तरजीह देने को आतुर प्रतीत हो रहे हैं। यही वजह है कि कार्यवाहक वित्त मंत्री पीयूष गोयल द्वारा 2019 के अंतरिम बजट हेतु किए गए बजटीय प्रावधान भी उपर्युक्त बातों-जज्बातों, आरोपों -प्रत्यारोपों के ही कठघरे में खड़े हैं जिसे यहां दुहराना मैं नहीं चाहूंगा क्योंकि सभी बातें पब्लिक डोमेन में हंै।



इस बात में कोई दो राय नहीं कि देश में समावेशी विकास को अपेक्षा से अधिक तरजीह देने वाली मोदी बजट एक्सप्रेस विगत 5 बजट मौके पर फर्राटा भरने के बाद इस बार यदि बेपटरी प्रतीत हुई है तो इसके पीछे राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में बीजेपी सरकारों की हुई करारी हार और हिन्दी पट्टी में हुए विभिन्न संसदीय उपचुनावों में भी बीजेपी को मिली अप्रत्याशित मातों का असर अधिक है जिससे न केवल उसकी विकास प्राथमिकताएं बदली हैं बल्कि वह भी कांग्रेसी सरकारों की बजट बाजीगरी की ओर उन्मुख हुई है, ताकि मिशन 2019 को किसी की नजर न लगे।
सवाल है कि नोटबन्दी, जीएसटी और कतिपय सख्त वित्तीय फैसले करने वाली पूंजी परस्त मोदी सरकार अब किसानों, मजदूरों, मध्यमवर्गीय परिवारों और वीर जवानों की बढ़ती जरूरतों के मद्देनजर हितकारी बजट बनाने को मजबूर हुई है तो इसके पीछे विपक्षी कांग्रेस, तथाकथित महागठबंधन और उसकी ओर पुनः फिदा हुई अवाम की बहुत बड़ी भूमिका है। सम्भवतः यह उसके ही सियासी दांवपेंचों का असर है कि चुनावी वर्ष में केंद्र सरकार कोई भी बजटीय जोखिम उठाने को तैयार नहीं दिखी।



कमोबेश सरकार ने सत्ता की अंतिम बेला में जिस तरह से ‘विष रस भरा कनक घट जैसा’ (बढ़ते राजकोषीय घाटे के परिप्रेक्ष्य में) वित्तीय प्रावधान लागू करने का अटपटा फैसला किया है, उसकी इस पहल को कितना जनसमर्थन मिलेगा, यह तो आम चुनाव 2019 के परिणामों से ही जाहिर होगा। हां, इस बात का भी डर लोगों को बना रहेगा कि इतना लोकलुभावन अंतरिम बजट प्रस्तुत करने के बाद भी यदि मोदी सरकार दोबारा सत्ता में नहीं लौटती है तो आने वाली नई सरकार नौकरशाही की बीन पर क्या गुल खिलाएगी, कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी।



दो टूक कहें तो जब केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली की तबियत नासाज चल रही हो, तब उनके ही कार्यवाहक उत्तराधिकारी पीयूष गोयल द्वारा विगत पांच वित्तीय वर्षों के अपेक्षाकृत सख्त बजट प्रावधानों से इतर लोकलुभावन अंतरिम बजट प्रावधान पेश करना देश के आर्थिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव तो डालेगा ही, बदलते समय के सापेक्ष कतिपय अन्य सवाल भी खड़े करेगा जिसका व्यवहारिक उत्तर देना सबके बस की बात नहीं।



बहरहाल, केंद्र की मोदी सरकार ने अपने अंतरिम बजट प्रावधानों के माध्यम से किसानों, मजदूरों और मध्यम वर्ग के दूरगामी हितों को ध्यान में रखते हुए जो कई बड़े ऐलान किए हैं और दो टूक कहा है कि यह बजट सबके लिए हितकारी है पर आर्थिक विशेषज्ञों की भी नजर है। सबकी मिली जुली प्रतिक्रियाओं से जाहिर है कि किसान उन्नति से लेकर कारोबारियों की प्रगति तक, इनकम टैक्स से लेकर इंफ्रास्ट्रक्चर तक, हाउसिंग से लेकर हेल्थ केयर तक, इकोनामी को नई गति देने से लेकर नए भारत के नवनिर्माण तक, वाकई इस बजट में सबका ध्यान रखा गया है जिससे हमारा गरीब सशक्त होगा, किसानों को थोड़ा सा ही सही पर आर्थिक सम्बल मिलेगा, श्रमिकों को भविष्यगत लाभ मिलेगा और अभी तक सबसे उपेक्षित रहे मध्यम वर्ग को आर्थिक स्वावलम्बन मिलने का मार्ग प्रशस्त होगा।



तभी तो इस बजट के प्रावधानों से जहां आयकरदाताओं में खुशी की लहर दौड़ गई, वहीं अन्य गोलबंद हो रहे वर्गों को भी कुछ न कुछ मिला है, या फिर मिलने की उम्मीद जगी है। यही नहीं, जीएसटी का सफल समायोजन भी मोदी सरकार की एक बड़ी उपलब्धि समझी जा रही है।
निस्संदेह भारत की अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर है, जहां सालों से देश में किसानों की हालत अत्यंत खराब रही है। लिहाजा, उनकी आत्महत्या की विचलित करने वाली खबरों के बीच साल दर साल के बजट में यह उम्मीद जगी रहती है कि सरकार किसानों के लिए कुछ विशेष पहल करते हुए कुछ नई घोषणाएं भी करेगी।
इस रूप में अंतरिम बजट 2019 में कार्यवाहक वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने किसानों-मजदूरों के हित में सराहनीय पहल की है बशर्ते कि इससे उनकी शिकायतें दूर हो जाएं। उन्होंने जो चमत्कारिक अंतरिम बजट प्रस्तुत किया है, उसके लिए वो, उनकी सरकार के समस्त मंत्री, सांसद एवं अन्य प्रतिनिधिगण भी सराहना के पात्र हैं कि जाते जाते भी इस टीम ने जनहित में आर्थिक चैके-छक्के लगाने का साहस तो बटोर ही लिया है।